Sunday, November 5, 2017

अपने सबसे प्यारे दोस्त को ताउम्र खुश रख पाने का सुख.....

कभी-कभी लगता है जैसे मैं कई सारे झूठे-सच्चे सपनों का सौदागर हूँ... अब तो इस बात से फर्क भी नहीं पड़ता कि कितने सपने पूरे हो रहे हैं और कितने अधूरे छूटते जा रहे हैं.... कभी मैंने खुद ने कभी इन हालातों ने न जाने कितने सपनों को पीछे छोड़ दिया और आगे बढ़ गए... फिर भी मैं हर रोज एक सपना देखता हूँ और पूरी शिद्दत से उसे पूरा करने में जुट जाता हूँ... कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जैसे पूरी कायनात ने किसी सपने को पूरा करने की राह में रोड़े अटकाए हों लेकिन मैं भी किसी मंझे हुए फुटबॉल खिलाड़ी की तरह ड्रिबल करते हुए अपने सपनों को गोल पोस्ट की तरफ लिए चले जाता हूँ... मुझे मेरे सपनों से अलग करना वैसे ही होगा जैसे शिकंजी से चीनी निकालना... इन सारे सपनों को मैं किसी अन्तरिक्ष यान में छोड़ देना चाहता हूँ, ताकि ये सारे सपने अनगिनत ध्रुव और परिधि बनाकर तुम्हारे आस-पास चक्कर काटते रहें... मुझे पता है, कभी जो कोई सपना अगर उल्का बन गया और खूब तेजी से तुम्हारी तरफ बढ़ेगा तो तुम दोनों हाथ पसारे उसे अपने सीने से लगा लोगी, ठीक वैसे ही जैसे जब हम कई दिनों बाद मिलते हैं तो तुम खूब जोर से मेरे सीने से चिपट जाती हो... जैसे ही वो उल्का बना सपना तुमसे लिपट जाएगा, तुम्हारे मन के आसमां में ढेर सारी रौशनी पसर जायेगी और उस रौशनी में तुम देखोगी कि मैं वहीँ खड़ा तुम्हारे लिए और ढेर सारे सपनों के समंदर बुन रहा हूँ... 

तुम्हारी ये खिलखिलाती सी मुस्कुराहटें, हज़ारों बहते हुए समन्दरों पर मेरे ख़्वाबों का आपतन बिंदु है... जब तुम हंसती हो तो मुझे इस दुनिया की सारी बंदिशों के खिलाफ जाने का दिल करता है, जैसे तुम्हारे चेहरे पर आने वाली हर मुस्कान के लिए ऐसे हर जहाँ हर बार कुर्बान... बहुत साल पहले मुझसे किसी ने कहा था कि मैं डूब कर मोहब्बत करता हूँ, पर मुझे लगता है जो डूब ही न पाए वो मोहब्बत ही कहाँ है भला... 

तुम जब भी मुझसे पूछती हो न कि "मैं क्या कर रहा हूँ..." और मैं जवाब दे देता हूँ, "कुछ नहीं... "
मेरा ये "कुछ नहीं..." समझ लो एक खाली गुल्लक है, जिसमे तुम अपने ख़्वाबों के सिक्के डालती जा सकती हो ता उम्र... इस गुल्लक से आती हुयी खनखनाती सी आवाज़ के भरोसे ही तो मेरी सांस चलती है इन दिनों..  ये "कुछ नहीं..." ही सब कुछ है मेरे लिए क्यूंकि इस "कुछ नहीं... " से ही मैं अपना "सब कुछ" तुम्हारी इन छोटी-छोटी हथेलियों में डाल के सुकून से चल सकता हूँ उन अनगिनत जन्मों के सफ़र पर तुम्हारे साथ.... 

इस दुनिया में कई सारे सुख हैं लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा सुख है अपने सबसे प्यारे दोस्त को ताउम्र खुश रख पाने का सुख.... 

Sunday, September 3, 2017

वक़्फ़ा...

मुझे कटिहार का वो बचपन याद आता है, मासूम से थे वो दिन, मैं दुनिया समझने की कोशिश कर रहा था, मैं उन दिनों कहानियां पढता था... फंतासी वाली कहानियां.. परियों की कहानियां, जादू की कहानियां, सुपर हीरोज की कहानियां... उन कहानियों को पढ़ते-पढ़ते शायद मैं इतना ज्यादा खो गया था कि मुझे सालों तक ये लगता रहा कि शायद किसी दिन कोई परी आकर मेरे हाथों में मेरी छोटी बहन रख जायेगी, मैं बस उसे प्यार ही करता रहूँगा और यही है मेरा जीवन... उन दिनों मैं जम कर गलतियां करता था, बेवकूफों वाली गलतियां और अपनी ही गलतियों पर हंस दिया करता था.. बार बार एक ही गलती करता था... 

मुझे पटना का वो पागलपन याद आता है जब मैंने ज़िन्दगी को पहली बार अपने नज़रिए से देखना शुरू किया था... उन दिनों जैसे पैर ज़मीं पर ही नहीं थे, कितना कुछ नया हो गया था, सबसे मीठा वाला इश्क़... एकदम हरी दूब के टूसे जैसा कोमल जिसपर मैंने अपने सपनों को पानी की बूँद सरीखा सज़ा दिया था... उन दिनों ऐसा लगता था जैसे कभी कुछ गलत हो ही नहीं सकता, दुनिया में सब अच्छे हैं... एक दोस्त ने तब कहा था कि मुझे देखकर ऐसा लगता है कि मैं आज तक बस अच्छे इंसानों से मिला हूँ और मुझे सब अच्छा ही अच्छा नज़र आता है... शायद बात सच भी उतनी ही थी, सब कुछ तो अच्छा था जैसे... बिना किसी शक वो मेरी ज़िन्दगी के सबसे हसीं दिन थे... 

मुझे हिमाचल की सर्दियां याद आती हैं, उन सर्दियों में मैंने ज़िन्दगी का रुखड़ा सा हिस्सा भी चख लिया... दुनियादारी सीखी, सही गलत इंसानों का फर्क महसूस किया और फिर वो एक दिन... सब कुछ जैसे थम गया, पहली बार मैंने तन्हाई महसूस की... सपने-ख्व़ाब-परियां-इश्क़ सब कुछ राख़ में तब्दील कर दिया... भले ही 10 साल हो गए लेकिन कई-कई रातों तक भीगे उस तकिये की नमी आज भी मैं अपनी आखों में महसूस करता हूँ, उस राख के रेशे आज भी ख़्वाबों में भूले भटके आ ही जाते हैं... और अजीब बात ये कि उस वक़्त तो मुझे शिकायत करना भी नहीं आता था, बस खुद में घुट कर रह गया... मैंने तो अपने आस-पास बस फूल ही उगाये थे फिर जाने कहाँ से ये काँटा आकर इतना गहरा चुभ गया... फिर एहसास हुआ कि पर कुदरत की मूंगफलियाँ ज़मीं के नीचे दबी होती हैं और नज़र भी नहीं आती...

मैं भी दीवाना था न आखिर, मैंने सोचा अब अपने आस-पास कैक्टस ही कैक्टस उगा लेता हूँ... मेरी जिद थी कि अगर मेरे शरीर में कहीं भी दरारें पड़ी तो वो मेरी खुद की बनायीं गयी होंगी... मेरे आलावा और किसी को इतना हक ही नहीं दूंगा जो मुझे नुक्सान पहुंचा सके.. मैं अब भी इन्हीं कैक्टसों के बीच में हूँ, खुद को छिलता रहता हूँ... ये एक लड़ाई दरअसल खुद के ही साथ है... अब मुझे गलतियां बिलकुल भी पसंद नहीं आती, मुझे अपने खुद के ख्व़ाब बेमानी लगते हैं... मुझे अब यहाँ से बाहर निकलने में डर लगता है, मैं वल्नरेबल नहीं बनना चाहता फिर से... मैं कईयों के लिए गलत बन गया हूँ, उन्हें बस मेरे आस-पास के कैक्टस नज़र आते हैं... जिस इंसान को दुनिया में सब कुछ अच्छा नज़र आता था आज वो शायद खुद ही बुरा सा कुछ बन के रह गया है... 

दूर बादलों के पीछे एक गज़ब का तीरंदाज़ है, हम उसके निशाने से बच नहीं सकते... 

Wednesday, May 17, 2017

इक तेरा इश्क़, इक मेरी ग़ज़ल...

मिलती है तू ख़्वाबों में, हर बार बिछड़ के ऐसे
धूप के कम्बल से झांकती जैसे वो ठिठुरती सी शाम है |

ए हमदम तेरा दिल मुझे उस नुक्कड़ सा लगता है
जिसे कोई मंजिल न मिली और वही आखिरी मुक़ाम है |

मैंने लिक्खी थीं कई नज्में अपनी मोहब्बत के वास्ते,
पर उन नज़्मों पर तेरी मुस्कराहट ही मेरा सच्चा कलाम है |

परवाह नहीं मुझे ज़माने की संगदिली की जब तक
मेरे दिल की ज़मीं पर तेरी मोहब्बत का आसमान है |

लिखने बैठा हूँ इक ग़ज़ल मोहब्बत के काफ़िये में
हर पन्ने पर लिक्खा मैंने बस तेरा ही नाम है |

कितना कुछ है जो लिखा जा चुका है कई-कई बार,
इक तिरा नाम है जिसे हर बार लिखना जज़ा का काम है |


*जज़ा- पुण्य 

Saturday, April 15, 2017

5 साल इश्क़ के...

वक़्त... ऐसा लगता है कि दुनिया में बस यही एक चीज है जिसका चलते रहना निश्चित है... देखो न वक़्त के पहिये ने देखते ही देखते 5 साल का सफ़र तय भी कर लिया और हमें खबर तक नहीं हुयी... वैसे हम जिस जन्मों-जन्मों के सफ़र पर निकल चुके हैं, ये तो उसका बस एक छोटा सा हिस्सा है... इन सालों में मैंने बहुत कुछ लिखा है, लगभग सारा कुछ बस तुम्हारे लिए या सिर्फ इसलिए कि तुम्हें मेरा लिखा पसंद आ जाता है(जाने क्यूँ भला)... 

जब कभी कोई कहता है मुझे
"तुम इश्क़ बहुत अच्छा लिखते हो..."
मैं याद करता हूँ तुम्हारी मुस्कान
और दोहरा देता हूँ मन-ही-मन
"तुम बहुत प्यारी लगती हो मुस्कुराते हुए..."
क्या करूँ,
मैं इश्क़ लिखता हूँ तो तेरी याद आती है...

पहले मैं कई तरह के अजीबोगरीब सपने देखा करता था, उन सपनों में उलझा हुआ बेतरतीब इंसान जाने क्यूँ तुम्हें पसंद आ गया... उस यायावर को तुमने जैसे स्थिर कर दिया, जैसे नदी में बहता हुआ कोई बड़ा सा पत्थर कभी किसी पेड़ के तने पे जा लगता है और अपनी सारी उम्र वहीँ टेक लगाए बिता देता है... वक़्त के साथ-साथ वो धीरे-धीरे ज़र्रा ज़र्रा सा होकर मिटटी में तब्दील हो जाता है और उसी तने में मिल जाता है... 

आज कल मेरे सपनों के आयाम द्विअक्षीय हो गए हैं जो बस तुम्हारी खुशियों और मेरी ज़िन्दगी के बीच कई सारी रेखाएं बनाते हैं, दरअसल मेरे सपने, मेरी ज़िन्दगी के शीशे पर तुम्हारी परछाईं का आपतन बिंदु है...

जैसे-जैसे हम अपने इस सफ़र एक-एक कदम बढाते जा रहे हैं, हमारा सफ़र और लम्बा और खूबसूरत बनता जा रहा है... तुम्हारी इन चमचमाती आखों को देखता हूँ न तो ज़िन्दगी का सारा अँधेरा सिमट के जैसे बह जाता है इस रौशनी में... हमने बहुत से ख्वाब देखे हैं और हम हर बढ़ते सालों के साथ उसे सजाते हैं, संवारते है और तह लगा के रख देते हैं अलमारियों में ताकि जब भी इन यादों की अलमारी खोलें बस इन खिलखिलाती यादों को अपनी ज़िन्दगी में चस्प होता पाएं... 

चार शब्द समेटता हूँ मैं,
बस तुम्हारे लिए....
इन लफ्जों को कोई 
अक्स- -गुल समझ लेना 
और टांक लेना अपनी 
जुल्फों के जूड़े में...
वो इब्तिदा - -इश्क की 
एक शाम थी जब 
हमने अपना खाली दिल 
तुम्हारे नाम कर दिया ...
आँखों से होते हुए तुम्हारी हम
दिल से, अपने दिल के, दिल में बस गए 
और सपनो से बुनी इस जिंदगी को 
सुबह--शाम कर दिया ...

तुम्हें पता है हम अभी जिस शहर आये हैं उसके लिए मैंने ये वाला दिन ही क्यूँ चुना... नहीं ये कोई इत्तेफाक नहीं... बस इस 5 साल के इश्क़ के पौधे को थोड़ी प्यार भरी छाँव मिले जाए...

देखा है तुमने कभी
मार्च की हवाओं का गुलदस्ता,
भरी है कभी पिचकारी में
मेरी साँसों की नमी...
कहो तो इस नमी में भिगो के लिए आऊं
तुम्हारे लिए कई सारे छोटे-छोटे चाँद....

चलो साथ में टहलने चलते हैं... मैं, तुम और हमारा ये 5 साल का इश्क़... 

Sunday, April 9, 2017

आधे-आधे सपने...

ये तस्वीर बस यूँ ही... :)
मेरी लिखी हर नज़्म
एक कचिया है,
हर शाम की तन्हाई के खेत में
उपज आई लहलहाती फसल को जो काट देती है
हर सुबह...

****************

मैं ऊब जाना चाहता हूँ
इस दुनिया से हमेशा के लिए
पर ऊब नहीं पाता...
मैं डूब जाना चाहता हूँ
कहीं किसी समंदर में
पर डूब नहीं पाता...
ऐसी चाहतें
ट्यूबवेल के नीचे लगे पत्थर
पर जमी कजली है...

****************

हर रात एक रेल की पटरी है
जिसपर मैं हर रात 2 से 4 बजे के बीच
सपनों की ट्रेन चलाता हूँ,
मेरे सपने इन दिनों,
पैसेंजर ट्रेन की यात्रा करते हैं,
हर छोटे हाल्ट-स्टेशनों पर रुकते हुए...
कभी-कभी मेरी नींद
अपनी गति बढ़ा कर
किसी हाल्ट तो लांघ दे तो
वो सपने उतर जाते हैं ट्रेन से
एक झटके में जंजीर खींचकर...

Sunday, March 26, 2017

पसीने से बहती कहानियां...

मेरे उतारे हुए मोज़े से
आती है
पसीने की अजीब सी गंध,
जैसे कुछ कहानियां और कुछ नज्में
थक गयी हों मेरे साथ चलते हुए
और बह गयी हों
पैरों के रास्ते से...

बीती रात
एक चूहा चुरा ले गया
छत पे पसरे उन मोजों को,
जाने उसे मेरी कौन सी कहानी
पसंद आ गयी होगी,
और उसे कुतर कर
बना लिया होगा
अपने लिए उन बिखरे शब्दों का बिल...

Monday, February 27, 2017

ब्लॉग, ज़िन्दगी और मैं... पिछले कई गुज़रे सालों का सफ़र...

आज से 17 साल पहले लिखना इसलिए शुरू हो गया कि किसी को मेरा लिखना बेइंतहा पसंद था, उस वक़्त तो मैं पता नहीं क्या क्या लिख देता था, और वो मुस्कुरा देती थी... जिद्दी थी और पागल भी... सोचता हूँ अगर वो इतनी जिद नहीं करती तो क्या मैं आज इतना सब कुछ लिख भी रहा होता या नहीं... उसका ये एहसान ही रह गया मुझपर, न चुका पाया और न ही भूल पाया... मेरा लिखा हर कुछ बस एक क़र्ज़ के नीचे रह गया.. अगर किसी को भी मेरे लिखे का एक कतरा भी पसंद आये तो मुझे अजीब सा लगता है... मुझे राइटर बनाने की उस एक जिद ने मेरी ज़िन्दगी बदल दी... कहते हैं कि पहला प्यार सबसे हसीं होता है, लेकिन जब पहली बार दिल टूटे तो दर्द भी बड़ा होता है, इतना बड़ा कि उससे उबरने में सालों लग जाते हैं, सदियाँ भी कभी कभी... प्यार लिखते-लिखते अचानक से लिखने में बस दर्द ही बाकी रह गया... उस दौर का हर एक दिन पन्ने पन्ने में संजोया था, उस वक़्त शायद अगर ये ब्लॉग होता तो हर कोई पढ़ पाता... जितना प्यार मैंने उस वक़्त लिखा उतना फिर कभी नहीं लिख पाया, सोचता हूँ कि मैंने प्यार किया ज्यादा या लिखा ज्यादा.... पता नहीं... 

खैर उस डायरी के प्यार को एक दिन राख में तब्दील कर दिया... करीब 3 साल तक फिर कुछ नहीं लिखा एक शब्द भी नहीं... 

फिर 7 साल पहले 2010 में जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था तो सोचा भी नहीं था कि इतना कुछ लिख जाऊँगा... पहला ब्लॉग मज़े मज़े में बना लिया था, नाम रखा "Cyclone of Thoughts..." और पहली पोस्ट डाली "Who is Thakrey..."   :P 

फिर दो पोस्ट और डाली लेकिन ब्लॉग का पता बहुत लम्बा रख लिया था, तो अच्छा नहीं लगता था फिर हद से ज्यादा छोटा करके i555.blogspot.com कर लिया, उस वक़्त अंग्रेजी ब्लॉग्गिंग का भूत था लेकिन अंग्रेजी में कभी लिखा नहीं, हाँ ब्लॉग का नाम ज़रूर अंग्रेजी में था, अब तक हम 'Cyclone' से सीधा 'Whispers' पर आ गए थे... नाम था "Whispers from a Silent Heart... " अच्छी चल निकली थी दुकान, ब्लोगिंग का चस्का लग चुका था... उस वक़्त ब्लॉग पर पहेलियाँ भी खूब चलीं... "पहचान कौन" पहेली के नाम से लोगों को हमारा ब्लॉग पता चला... अच्छा दौर था, पहली बार मेरी पहचान उन लोगों के बीच हो रही थी जिनसे मैं कभी मिला नहीं था, हाँ फ़ोन फ्रेंड, लैटर फ्रेंड (उस वक़्त फेसबुक अब जैसा शक्तिशाली नहीं था.... ) बहुत थे पर अजनबियों के बीच खुद को खड़ा करने का मज़ा ले रहां था मैं... 

खैर वापस ब्लॉग पर आते हैं, मैं उन दिनों कुछ भी अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में नहीं लिखता था... सच कहूं तो डर लगता था कि लोग पढेंगे तो क्या सोचेंगे, वही डर जिसने पूरी दुनिया को अपंग बना रखा है.. इसी दौरान मेरा वो ब्लॉग एक दिन अचानक से गायब हो गया, उस वक़्त लगा था कि हैक हो गया है लेकिन अब जब मैं खुद साइबर सिक्यूरिटी में हूँ तो लगता है कुछ और ही हुआ होगा... सारी पुरानी पोस्ट गायब अचानक से ख़त्म हो गयी थी, और मैंने कुछ संजोया भी नहीं था... प्रशांत भैया ने कुछ पोस्ट्स अपने फीड रीडर से निकाल के दीं, हालाँकि जब मैंने उनको पढ़ा तो लगा जाने क्या बकवास लिखा था.... मेरे लिए शायद ये वेक अप कॉल था, मैं एक ब्लॉगर की तरह लिख रहा था जबकि मैं एक लेखक की तरह लिखना चाहता था... नया ब्लॉग बनाया और फिर से लिखना शुरू किया, पहले से कुछ अलग ये सोचे बिना कि कोई इसे पढ़ भी रहा होगा... 

पता नहीं, वो बेहद उदास शाम थी जब मैंने बेपरवाही के साथ अपनी ज़िन्दगी का एक पन्ना खोल के ब्लॉग पर लगा दिया... पता नहीं कितने लोगों ने पढ़ा, खुद से रिलेट किया लेकिन पहली बार मुझे ब्लॉग पर कुछ लिखकर अच्छा सा लग रहा था, फिर मैंने अपने बारे में, अपनी ज़िन्दगी के बारे में बहुत कुछ लिखा... लोग क्या कहेंगे वाला डर निकल गया था, हालाँकि ये लगता था कि कोई घर से न पढ़ ले... बहुत कुछ लिखा उस दरमयान... 

2011-2012 मेरी ज़िन्दगी के सबसे उथल-पुथल वाले सालों में से रहा, उन दिनों मैंने बहुत कुछ पाया... ढेर सारा लिखा, उन दिनों ज्यादा लिखने की वजह भी बहुत ख़ास थी... जबकि आपको पता हो आपके ठीक पीछे बैठ के कोई ब्लॉग के पोस्ट होने का इंतज़ार कर रहा हो... सच में प्यार से ज्यादा खूबसूरत वो वक़्त होता है जब प्यार हो रहा होता है... प्यार किसी भी वक़्त हो, किसी भी उम्र में हो लेकिन जब ये हो रहा होता है न हम एक टीनएजर से ज्यादा कुछ नहीं होते... मैंने उस वक़्त अपनी ज़िन्दगी में जो भी सोचा, जो भी किया सब कुछ लिखा, शायद सिर्फ इसलिए कि मेरे पीछे बैठी अंशु पढ़ सके उसे... उसे पीछे से झाँकने में इसके लिए मैंने क्लास में अपनी सीट पीछे कर ली थी... कमाल है न, इसी ब्लॉग से उसने मुझे जाना, इसी ब्लॉग पर मैंने उससे बातें कीं, यहीं प्यार का इज़हार भी कर दिया... 

सच कहूं तो मैंने खुद के लिए बहुत कम ही लिखा, पहले किसी और के लिए लिखा करता था और फिर किसी और के लिए... हाँ लिखने के लिए कुछ "push" तो चाहिए ही होता है न...

आजकल यहाँ कम ही लिखता हूँ, मैं वापस उसी डर में चला गया हूँ कि लोग पढेंगे तो क्या कहेंगे... :)
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