Saturday, August 6, 2011

अबे गधों तुम लोगों की बहुत याद आती है यार...

              कहने को तो कल फ्रेंडशिप डे है. वैसे मुझे नहीं लगता कि कोई अच्छा दोस्त दोस्ती जताने के लिए इस दिन का इंतज़ार करता होगा... अमां यार दोस्ती का भी कोई दिन होता है, हम जैसे आवारा लोग तो हर दिन ही दोस्तों के साथ मटरगस्ती किया करते हैं... बाकी सारे रिश्तों के मामले में थोडा अनलकी ज़रूर रहा हूँ (इस बारे में फिर कभी) लेकिन दोस्तों ने कभी अकेला नहीं छोड़ा... स्कूल से लेकर आज तक न जाने कितने ही आवारा दोस्त मिले हैं (अरे आवारा कहके तो फिर भी बहुत इज्जत दे रहा हूँ, क्यूंकि इससे ज्यादा तारीफ करने पर ये पोस्ट सेंसर बोर्ड की नज़र में आ सकती है)... लेकिन छोटे शहर में रहने का एक नुकसान तो है स्कूल के दोस्त बिछड़ जाते हैं, सब अलग अलग कोने में निकल जाते हैं अपने भविष्य(?) को संवारने के लिए... फिर शायद ही कभी मुलाकात होती हो... आप सोच रहे होंगे अरे नहीं ऐसा कहाँ होता है, हाँ हाँ अब ऐसा नहीं होता... अब तो मोबाइल का दौर है, सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट का दौर है... जो हम जैसे दोस्तों को जोड़े रखता है चाहे हम कहीं भी रहे... ये सिर्फ ऑरकुट का ही चमत्कार है कि स्कूल ख़त्म होने के ७-८ सालों के बाद मेरे सभी स्कूल फ्रेंड्स दुबारा कॉन्टैक्ट में आये जिनसे मिलने की उम्मीद छोड़ ही चुका था... ये काम फेसबुक ने नहीं ही किया होगा किसी के लिए...(थैंक्स ऑरकुट)...
               ये पोस्ट लिखते लिखते स्कूल की बातें फ्लैशबैक की तरह सामने से गुज़र रही हैं (अरे वैसा नहीं जैसा फिल्मों में दिखाते हैं, बैकग्राउंड म्यूजिक एंड ऑल, बस सिंपल सा ही है, लेकिन नोस्टालजिक करने के लिए काफी है)...
               
मेरे माँ-पापा दोनों हीं टीचर हैं, अब आप सोच ही सकते हैं घर पर अनुशासन की कैसी गंगा बहती होगी (पापा ६ साल पहले रिटायर हो गए), इसलिए क्लास ७ तक कभी माँ के स्कूल में या फिर पापा के स्कूल में ही पढाई की, तो वहां ज्यादा आवारागर्दी करने का मौका ही नहीं मिलता था (वैसे उस समय बच्चे बहुत सीधे हुआ करते थे, आज कल के बच्चों की तरह नहीं).. खैर ८ वीं क्लास में आखिरकार एक सरकारी हाई स्कूल में दाखिला हुआ मेरा... और घर से ये सख्त हिदायत मिली कि दोस्ती केवल पढने-लिखने वाले लड़कों से करनी है, मैं भी आज्ञाकारी बच्चे की तरह रोज अटेंडेंस के समय देखता था कि रौल नंबर १-२ किस लड़के का है (आपकी जानकारी के लिए बता दूं हमारी क्लास में करीब २४० स्टुडेंट्स थे, हाँ हाँ सब एक ही क्लास में बैठते थे, क्लास क्या थी, पूरा हॉल था).. आखिरकार ५-६ दिन में पता चल गया कि शुरुआत के १०-१२ पढंदर कौन कौन हैं...जल्दी ही दोस्ती भी कर ली... अब ज़ाहिर सी बात है इतने लड़के हैं तो सबसे आगे की बेंचों पर सीट छेकनी पड़ती थी, क्लास का दरवाज़ा खुलने से पहले ही हमलोग बन्दर की तरह(?) खिडकियों पर झूलकर (कमरा दूसरी मंजिल पर था) आगे की बेंच पर कब्ज़ा जमा लेते थे... हर रोज कोई न कोई पहले आ ही जाता था इस आवश्यक कार्य को अंजाम देने के लिए... आगे के दो बेंच अक्सर हमारे कब्ज़े में ही होते थे, हम मतलब मैं, राहुल, आनंद, विजय(नीकू), मिथिलेश, मुकेश, उज्जवल, सुमन, मनोज, अभिषेक (अगर किसी को भूल रहा हूँ तो प्लीज माफ़ कर देना) :P कुछ दोस्त और थे लेकिन वो कभी भी आगे की बेंच पर नहीं बैठते थे, (यू नो पढने में तेज बैक बेन्चर्स :)) आशीष, अलोक, साकेत, संजीव और मदन.. शायद इस पोस्ट पर  आलोक या आशीष कोई कारण बता दे पीछे बैठने का, हो सकता है कुछ ऐसा ओबजर्व करता हो जो आगे की बेंच से देखना मुश्किल हो :P आशीष से उतनी ज्यादा बात नहीं होती थी, लेकिन फिर भी बहुत अच्छा दोस्त है वो मेरा, और आज भी बराबर कॉन्टैक्ट में बना हुआ है.. शायद हो सकता है यहाँ कमेन्ट भी कर दे इमोशनल होके... :)
               कभी कभी जब सीट की किल्लत होती थी तब तो हम एक बेंच पर सात लड़के बैठते थे (कैन यु इमैजिन) ... हमारे एक टीचर ने हमारा नाम सप्तऋषि रख दिया था .. :) उस समय हमारे क्लास  टीचर थे सी पी मेहता सर.. अंग्रेजी पढ़ाते थे, अब इतनी बड़ी क्लास में पढाना कोई आसान काम तो है नहीं, हमारे जैसे लुच्चे लड़के तो पहली बेंच पर बैठ के भी गप्पें लड़ाते थे तो आप सोच ही सकते हैं कि पीछे बैठने वाले लड़के क्या नहीं करते होंगे... मेहता सर ने इसके लिए अनूठा तरीका ढून्ढ लिया था, मैं तो अक्सर ही गप्प मारते पकड़ा जाता था, फिर मुझे बेंच पर खड़ा करते थे और बोलते थे फलाना चेप्टर को डिक्टेट करो...और खुद पूरी क्लास में टहलते हुए निगरानी करते रहते थे... न जाने कितने दिन मैं पूरी घंटी बेंच पर खड़ा रहा हूँ...
               बड़े ही मस्ताने दिन थे, इतने सारे लड़कों में से शायद ही कोई पढने जाता होगा, हम तो जाते थे जीने के लिए, खेलने के लिए, एक दूसरे से मिलने के लिए... उन दोस्तों से मिलने के लिए जिनके बिना दिन अधूरा लगता था...ये वो दिन थे जब छुट्टियां अच्छी नहीं लगती थीं... ये वो दिन हैं जो अब लौट कर नहीं आ सकते...
               कुछ भी नहीं भूला हूँ मैं, चाहे वो हर सुबह अपने घर के बाहर आनंद का इंतज़ार करना ताकि उसकी सायकिल पर आराम से बैठ के स्कूल जाऊं, चाहे वो उज्जवल की जिंदादिली या फिर  नीक्कू के पकाऊ जोक्स (finally i am admitting :)) हा हा हा.. :D अरे हाँ सुमन की वो लम्बी जीभ जिसे वो बड़े आराम से नाक तक की यात्रा कराके ले आता था, वो किसी कौतुहल से कम नहीं थी... उफ्फ्फ्फ... वो दिन ... अबे गधों तुम लोगों की बहुत याद आती है यार...  आशीष इसी शनिवार बंगलौर आ रहा है मिलने के लिए, कुछ और पुरानी बातें ताज़ा होंगी...
                आप सभी को फ्रेंडशिप डे की बधाई (हालाँकि मैं ऐसे किसी भी दिन को मानने से इनकार करता हूँ)...

Monday, August 1, 2011

मॉडर्न आर्ट की एक तस्वीर भर है ज़िन्दगी...

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं, वो अक्सर पूछा करती है नया कब लिख रहे हो... मेरे पास कोई जवाब नहीं होता.. आखिर क्या कहूं, कितनी कोशिश तो करता हूँ लेकिन गीले कागज पर लिखना आसान नहीं होता... और वो स्याही वाली कलम तुमने ही तो दी थी न, उसकी लिखावट बहुत जल्द धुंधली पड़ जाती है...  लेकिन वो ये बात नहीं समझती, और हर रोज यही सवाल पूछती है ...जानती हो उसने कितनी बार ही कहा तुम्हें भूल जाने को, शायद उसे मेरे चेहरे पर ये उदासी अच्छी नहीं लगती ... लेकिन तुम्हारे आने और लौट जाने के बीच मेरे वजूद का एक टुकड़ा गिर गया था कहीं, वो कमबख्त उठता ही नहीं बहुत भारी है... क्या ऐसा मेरे साथ ही होता है कि जो इस पल साथ होता है वो अगले पल नहीं होता...

मैं अब अजीब सी कश्मकश में हूँ, पहले जो शाम काटे नहीं कटती थी... नुकीले चाकू की तरह मुझे चीरने की कोशिश करती थी, अब वो फिर से तितली के पंखों की तरह चंचल हो गयी है... जो शाम तुम्हारे यादों के संग गुज़रती थी उसे अब उसने अपनी खिलखिलाहट से भर दिया है... पता नहीं कैसे... जो कुछ भी मैंने कहीं अपनी सबसे भीतरी तह के नीचे छुपा कर रख दिया था, उसे नीले आकाश की उड़ान भरते देख रहा हूँ...क्या ये वही शहर है जहाँ चाँद ने उगना छोड़ दिया था, कल रात देखा तो चाँद ज़मीन पर उतर आया था...

कितनी बार उसने मुझसे पुछा कि मैं जो तुम्हारे बारे में इतना कुछ लिखता हूँ तुम्हें इसकी कद्र भी है या नहीं, और मैं यही फैसला नहीं कर पाता कि ये मैं तुम्हारे काल्पनिक अस्तित्व के लिए लिखता हूँ या अपनी संतुष्टि के लिए या फिर कलम खुद-ब-खुद अपनी मंजिल ढूँढ लेती है... इन सभी उधेड़बुनों के बीच एक और ख्याल है जो मुझे बेचैन कर जाता है, जबकि उसे पता है मैं उसका नहीं हो सकता, फिर भी हर शाम वो मेरे पास आती है...

ये ज़िन्दगी उस मॉडर्न आर्ट पेंटिंग की तरह होती जा रही है जिसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने उसे बनाया है... मुझे तलाश है बस अपने उस कलाकार की जिसकी बनाई तस्वीर में उलझा हुआ हूँ, ये मॉडर्न आर्ट बनाने वाले तस्वीरों पर अपना नाम भी कम ही लिखते हैं...
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