Friday, June 24, 2016

बंद कमरा...

इन दिनों मैं बहुत कुछ ऐसा सोचने लगा हूँ जो मैं नहीं चाहता कि तुम पढ़ो, कुछ रद्दी से पड़े पन्नों पर लिखकर उसे फाड़ कर फेक देता हूँ.... कभी हमारे बीच में की गयी कुछ अनकही बातों के सिरे को भी पकड़ो तब भी उससे नयी कोई बात नहीं निकलती... ससर गाँठ की तरह सारी पुरानी बातों के गिरहें खुलकर बस सीधा सन्नाटा बच जाता है... मैं फिर से ख़ानाबदोश होने लगा हूँ, दिन भर बेफालतू इधर उधर बौखलाया फिरता हूँ ... इंसान चाहकर भी अपनी परछाईयों से नहीं भाग सकता, शायद इसलिए मुझे अंधेरा अच्छा लगता है... किसी से नज़र चुराने की ज़रूरत नहीं है, खुद से खुद की बातों में खो जाना ही असीम सुख है... कितना अच्छा होता न अगर अंधेरा ही सच होता, इस तेज रौशनी में मेरी आखें चौंधिया जाती है, दिल में जलन होती है सो अलग... 

शाम को इस अंधेरे से कमरे में बैठकर अपने अंदर की रगड़ सुन रहा हूँ, दिमाग बार-बार दिल को कहता है आखिर ज़रूरत क्या थी इश्क़ करने की, अब भुगतो... और दिल चुपचाप खुद को एक कमरे में बंद कर लेता है, मुझे डर लगता है कहीं यूं अकेले रहते रहते मैं किसी बंद कमरे में तब्दील न हो जाऊँ... 

रात एक माचिस है, 
और तन्हा होना एक बारूद 
तेरी याद एक रगड़ है, 
तीनों गर मिल जाएँ 
तो मेरी धड़कन 
राख़ हो जाती है जलकर....

Saturday, June 18, 2016

जैसा कि तुमने कहा...


इस छोटे से घर की खिड़की से
झांकता हुआ ये चाँद,
और इसे निहारते हुए
हम और तुम,
अपने साथ लिए
कुछ फुरसत के पल,
चलो बांध ले इन पलों को, 
जैसे बांध के रखा है 
तुमने अपने सपनों को
मेरी खुशियों के साथ...


Saturday, June 11, 2016

ये शाम अंधेरे में ही सही....

बैंग्लोर की ये सर्द सी शाम दिल में अजीब सी चुभन पैदा कर रही है जबकि पता है मैं कितना भी चाहूँ इसे जलाकर राख़ नहीं कर सकता... तुम्हारी प्राथमिकताओं के साथ जीना मुश्किल हो रहा है मेरे लिए... ऐसा लगता है मैंने खुद ही अपना कातिल चुन लिया है... जिस चीज से मुझे सबसे ज्यादा नफरत थी, वो बात मेरे साथ बहुत दूर तक चलती नज़र आ रही है...

ध्यान रखना जो बहुत मुश्किल से मिलता है उसके टूटने की आवाज़ भी उतनी ही गहरी उतरती है...

कभी कभी बड़ी शिद्दत से वक़्त को पीछे धकेलने की तलब होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी चेन स्मोकर को सुबह सुबह सिगरेट की लगती होगी... अचानक से आज बोझ लगने लगता है, बासी से बीत गए उस कल को एक कश में अपने अंदर खींच लेने का दिल कर रहा है... उन सुर्ख पड़ी बातों का जुर्म बस इतना था कि वो अब बीत गयी हैं और दोबारा नहीं आ सकतीं... पुराना वक़्त बाहर बारिश में भीग रहा है...

इंतज़ार की सतह इतनी खुरदुरी होती है कि उस पर औंधे मूंह गिरने का दर्द बयान नहीं कर सकते... सरप्राईजेज़ तो बहुत दूर की बात है अब तो जैसा सोचता हूँ वैसा भी नहीं होता... 

Wednesday, June 8, 2016

मैं तुमसे भाग के भी तुम तक ही आऊँगा...

दिन भर की इधर उधर बेमानी सी बातों के इतर जल्द से जल्द घर पहुँचने की जाने क्यूँ अजीब सी हड़बड़ी होती है... शायद एक कोने में लौटने भर का सुकून ही है जो मुझे आवारा बना देता है... 

कभी कभी मुझे डर लगता है कि अगर मैं किसी दिन शाम को घर नहीं लौट सका तो डायरी में समेटे हर्फ बिखर तो नहीं जाएँगे... हर सुबह मैं कितना कुछ अधूरा छोडकर उस कमरे से निकलता हूँ, उस अधूरेपन के लिबास पर कोई पासवर्ड भी नहीं लगा सकता... बैंग्लोर में बारिश भी तो हर शाम होती है, और मैं हर सुबह खिड़की खुली ही भूल जाता हूँ... अगर कभी ज़ोरों से हवा चली तो वो खाली पड़े फड़फड़ाते पन्ने मेरे वहाँ नहीं होने से निराश तो नहीं हो जाएँगे... हर सुबह उस खिड़की से हल्की हल्की सी धूप भी तो आती है, उस धूप को मेरे बिस्तर पर किसी खालीपन का एहसास तो नहीं होगा... मेरे होने और न होने के बीच के पतले से फासले के बीच मेरी कलम फंसी तो नहीं रह जाएगी न, उस कलम की स्याहियों पर न जाने कितने शब्द इकट्ठे पड़े हैं, उन्हें अलग अलग कैसे पढ़ पाएगा कोई... 

मैं कमरा भी ज्यादा साफ नहीं करता, मेरे कदमों के निशान ऐसे ही रह जाएँगे... उन निशानों को मेरी आहट का इंतज़ार तो नहीं होगा न... मेरी अनंत यात्रा के मुकद्दर में नींद तो होगी न, अक्सर जब मुझे नींद नहीं आती तो कुछ सादे से पन्नों पर अपनी ज़िंदगी लिखने का शौक भी पाल रखा है मैंने.... इत्तेफाक़ तो देखो मुझे सिर्फ अपने बिस्तर पर नींद आती है, और मैं अपने साथ अपनी डायरी भी लेकर नहीं निकलता....  

ऐसे में मैं अपनी हथेलियों पर तुम्हारे लिए चिट्ठियाँ उगा कर भेजा करूंगा.... तुम्हें तो पता है ही कि मेरी हथेलियों पर पसीने बहुत आते हैं, उसे मेरे आँसू न समझ बैठना... 

क्या मुझे साथ में एक्सट्रा जूते रख लेने चाहिए, कहीं किसी तपते रेगिस्तान में फंस गया तो उस आग उगलती रेत में कैसे पूरा करूंगा घर तक वापस आने का सफर... उफ़्फ़ मेरी कलाई घड़ी में इतने दिनों से बैटरि भी नहीं है, वक़्त का पता कैसे लगाऊँगा... इस घड़ी की सूईयों की तरह ये वक़्त भी कहीं भी ठहर जाता है, मेरा वक़्त सालों से मेरे बिस्तर के आस-पास अटक कर रह गया है... तुमको जो घड़ी दी थी न उसमे वक़्त देखते रहना क्या पता उस घड़ी के समय के हिसाब से मेरे कदम तुम्हारी तरफ चले आयें... 

दिल करता है पूरा शहर अपने साथ लिए चलूँ जहां भी जाता हूँ, लेकिन कितना अच्छा होगा न अगर तुम ही बन जाओ मेरा पूरा शहर, मेरी घड़ी, मेरा वक़्त, मेरी डायरी, मेरी कलम, मेरी धूप, मेरी शाम, मेरी बारिश, मेरी पूरी ज़िंदगी...  
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