Wednesday, September 12, 2012

चाय का दूसरा कप... (2)

पिछली पोस्ट को पढने के बाद पता नहीं आपको इस किताब ने कितना आकर्षित किया होगा लेकिन मुझे इस किताब को पढ़ते पढ़ते कई बार ये ख्याल आया कि कैसा लगेगा अगर कोई ऐसा जिसके साथ आप हर रोज अपने कई सारे लम्हें जीते हों वो अचानक से कहीं ओझल हो जाए... और अगर वो आपको कोई अपना हो, सोच के ही मन में एक रुदन सा होने लगता है... एक एकाकी पिता के लिए उनके दोस्त जैसे बेटे का लापता हो जाना ... हर बार देवदत्त उसे लापता मानने से इनकार कर देते हैं, क्यूंकि गुमशुदा केतन नहीं वो खुद हो गए हैं उसकी स्मृतियों के बीच... उनके हिसाब से वो लौट आएगा थोड़े वक़्त के बाद... लेकिन तब तक का इंतज़ार देवदत्त जी नहीं पा रहे हैं... उनके हर उस लम्हें में घुट घुट कर जो बेबसी के कांटे उभरते हैं उनको सीधे साफ़ सटीक शब्दों में उतारने में सफल हुए हैं ज्ञानप्रकाश विवेक ...
बहुत दिन पहले देवदत्त बड़ी उम्मीद, भरोसे और विश्वास के साथ पुलिस स्टेशन गए थे, गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने... क्या हश्र हुआ था उनका ? जैसे अपना वजूद गुम कर आये हों... रास्ते में वो ऐसे चलते रहे जैसे बिना पैरों का आदमी... वो चलते रहे.... उनके भीतर कोई खलिश रेंगती रही...पुलिस स्टेशन का ठस्स माहौल उनके पीछे पीछे चलता आया.. वो घबराते रहे.. सोचते रहे-- ऐसा लगता था, वहां इंसान नहीं लोहे के आदमी बैठे है.. ऐसे लोहे के आदमी जो दूसरों के दुःख को भी मखौल में बदल देते हैं... 
          दिन भर देवदत्त सड़कों पर इधर उधर भटककर घर पहुँचते हैं हालांकि वो आना नहीं चाहते... लेकिन उनके बेबस पैर आखिर जाएँ भी तो जाएँ कहाँ... घर पहुंचकर भी उन्हें कुछ समझ नहीं आता तो वो चुपचाप केतन के दरवाजे के पास जाकर खड़े हो जाते हैं, बस टकटकी लगाकर उस दरवाज़े को देखते रहते हैं जैसे अभी केतन उस दरवाज़े से निकल कर उनकी तरफ हाथ बढ़ा देगा... फिर यूँ ही उभें चाय पीने का ख़याल आता है.. वो चाय का कप उठाते हैं, फिर कहीं खो से जाते हैं..
बेजान चीजें कई बार कितना तंग करती हैं। जैसे जिंदा होकर सामने आ बैठी हों आपसे जिरह करती हुईं। जैसे कि यह कप, जो देवदत्त के हाथ में है, जिस पर ‘डैड’ लिखा है अंग्रेजी में। इसे केतन लाया था, देवदत्त के बर्थडे पर। पापा के लिए वह महंगे गिफ्ट खरीदता था। एक बार उसकी जेब में पैसे कम थे। उसने इस कप को गिफ्ट के रूप में देवदत्त को पेश किया। देवदत्त खुश हो गया। उन्होंने केतन से हाथ मिलाया। दोस्त हाथ मिलाता है, देवदत्त को याद है। उस दिन केतन ने चाय बनाई। इसी नए कप में, जिस पर डैड लिखा हुआ था, चाय डालकर पापा के सामने, मेज पर कप रखते हुए कहा था, ‘पापा, आप इस कप में चाय पीयेंगे तो मुझे लगेगा यह मेरा मामूली-सा गिफ्ट बहुत बड़ी चीज हो गया है।’ 
एक पिता की खोए हुए बेटे के लिए लाचारी, बेकरारी, यहां बहुत कुछ कह देती है। काव्यात्मक अभिव्यक्ति, बोलचाल की आम शब्दावली, ज्ञानप्रकाश विवेक का नैरेटर के रूप में मिजाज यहां मन मोह लेता है... वक़्त धीरे धीरे बीतता जाता है, हर रोज सुबह देवदत्त इसी उम्मीद में जागते हैं कि शायद आज केतन वापस आ जाये.. हर रोज़ उसके कमरे का दरवाज़ा नॉक करके पूछते हैं "मे आई कम इन".. जबकि वो जानते हैं इसका कोई जवाब नहीं आएगा, फिर भी वो पूछते हैं... हर रोज उसका बिस्तर साफ़ करते हैं, पहले से ही करीने से सजाये कमरे को फिर साफ़ करते हैं ताकि वो जब भी आये उसे कमरा चकाचक मिले...
रैक में रखे केतन के नए जूते उठाकर सूंघने लगे हैं देवदत्त... कोई जूते भी सूंघता है किसी के भला... केतन पुराने जूते पहनकर चला गया, नये जूते छोड़ गया। देवदत्त केतन की गंध को महसूस करना चाहते हैं। चाहे वह पैरों की गंध हो या पसीने की...  कोई शख्स न हो तो.. उसके न होने की भी गंध होती है। देवदत्त शायद उसी गंध को महसूस कर रहे हैं...
हर लम्हें इसी तरह से गुज़रते हैं... इसी इंतज़ार के इर्द-गिर्द कहानी आगे चलती है... देवदत्त जब भी चाय बनाते हैं, दो कप बनाते हैं... कहीं चाय पीते पीते ही केतन आ गया तो... कभी बाहर भी चाय पीते हैं तो दो कप बनवाते हैं... एक कप उठाकर वो पीते रहते हैं और दूसरा कप वहीँ साईड में पड़ा रहता है... केतन के इंतज़ार में रहता है वो "चाय का दूसरा कप" ...

पहली बार किसी किताब के बारे में लिखा... उम्मीद है आपको पोस्ट अच्छी लगी होगी और ये किताब ज़रूर पढ़ें , किताब भी अच्छी लगेगी ...

  • पुस्तक : चाय का दूसरा कप (उपन्यास) 
  • लेखक : ज्ञानप्रकाश विवेक 
  • मूल्य : रुपये : 150/-.

7 comments:

  1. अच्छा लिखा है शेखर!!! पढने का मन भी कर रहा है , अभी काफो बैक-लॉग है , उसके बाद पढ़ते हैं !!!!

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    1. आराम से पढो, कोई हड़बड़ी नहीं है....

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  2. सच में बड़ी ही रोचक लग रही है पुस्तक, आपने और भी रोचक बना दी।

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  3. अभी तो मेरे पास भी पढने का बहुत स्टॉक पड़ा हुआ है...लेकिन पढ़ते हैं जल्दी ही :)

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  4. सच मे बेहद रोचक लग रही है एक पिता के अहसासों और पीडा को कितनी संजीदगी से संजोया है यूँ लग रहा है जैसे खुद पर बीती हो तब ये शब्द उतरे हों।

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    1. पुस्तक रोचक है या नहीं पता नहीं, लेकिन इसका लिटरेचर आकर्षित करता है... लेखक जो कहना चाहता है वो कहने में सक्षम हुआ है...

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