Monday, August 13, 2012

कभी कतरा-कतरा करके भी कुछ लिखता हूँ ...

यादों की परतें इतनी पतली होती हैं न की अगर कभी किसी ने किसी एक परत को छू भर लिया तो ज़िन्दगी की इस किताब में से यादों की परतें उधडती चली जाती है... आस पास एक गहरा सन्नाटा छा जाता है, उस सन्नाटे में से कभी किसी के रोने की आवाजें आती हैं तो कभी किसी की मासूम सी खिलखिलाहट... उन यादों के गलियारों में कितना कुछ होता है, अब जैसे वो सब कुछ किसी बीते युग जैसा लगता है.... न जाने कितने ही ऐसे लोग हैं जो उस वक़्त अपनी ज़िन्दगी जैसे लगते थे और पता नहीं कब जाने कौन से मोड़ पर पीछे छूट गए...

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कभी-कभी यूँ ही अचानक बैठे-बैठे मन उदास सा हो जाता है, कोई कारण समझ नहीं आता... आस-पास की भीड़ को देखकर मन उचाट हो जाता है... किसी से बात करने का दिल नहीं करता... बस सोचता हूँ काश कोई अपना सा आ जाए जिसकी गोद में सर रखकर सो जाऊं... ऐसे में अक्सर कानों में इयरफोन लगाकर धीमी आवाज़ में कुछ सैड सौंग्स सुनता हूँ... सोने की एक नाकाम सी कोशिश करता हूँ, मोबाईल में कुछ तस्वीरों को पलटता हूँ... और अनजाने में ही आंसू की कुछ बूँदें धीमे से आखों की कोर से लुढ़क जाती हैं....

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मेरी बस हर रोज उसी तरफ से गुज़रती है, उन मुर्दा पत्थरों पर खुदे कुछ नाम और उनसे झांकते कुछ चेहरे...कुछ एक तो जैसे पहचानने सा लगा हूँ जैसे कभी मिला हूँ उनसे... इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी से होकर उन पत्थरों में खुदे नाम भर बन जाने के सफ़र में हम कितना कुछ पाते हैं, कितना कुछ खो जाते हैं... इस सफ़र में न जाने कितने सपने, कितना कुछ पाने की जद्दोजहद... उन पत्थरों के नीचे दफन होंगे न जाने कितने सपने, कितनी कहानियां और न जाने कितने ही अपनों की चीखें ... ( Adugodi, Bangalore के एक Chirstian Cementry की तरफ से गुज़रते हुए.... )

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कुछ बातें, कुछ सपने, कुछ इंसान और भी न जाने क्या क्या... बहुत कुछ ऐसा होता है जो भुलाए नहीं भूलते... इंसान की सोच इतनी खुरदरी होती है न कि काफी कुछ फंसा रह जाता है... भूलने और याद रखने के बीच का ये गलियारा जहाँ हर परछाईं से हम बचना चाहते हैं, लेकिन ऐसा कर नहीं पाते...

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पागलखाने के एक सूने से खाली कमरे के कोने में एक लड़का बैठा है, दीवार पर कुछ-न-कुछ उकेरता ही रहता है... शायद कहानियां हैं उन अधूरे से सपनों की, जिनके सच होने की राह वो आज तक देख रहा है, हर थोड़ी देर बाद वो दरवाज़े की तरफ देखता है... कुछ जाने पहचाने चेहरों की तलाश में... उसकी आखें थकी थकी सी लगती हैं लेकिन उसके अन्दर से झांकता इंतज़ार कभी ख़त्म नहीं होता... बस एक प्रश्नवाचक निगाहें ऊपर आसमान की तरफ उठती हैं जैसे ये पूछ रही हों... और कितना इंतज़ार... !!! ( एक कभी न समझ आने वाले सपने के गलियारे में झांकते हुए ...)

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10 comments:

  1. तुम्हारी पोस्ट पढते हुए सोचता हूँ कि तुमसे मिलूँ, सारा दिन तुमसे बतियाऊँ, कुछ न कहूँ, बस सुनता रहूँ तुम्हें.. कभी अपना दोस्त और कभी अपना बच्चा मानते हुए.. और बस तुम्हारे बालों में हाथ फिराते हुए बोलूँ- मैं हूँ ना!!

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    1. मेरा भी बहुत मन होता है आपसे मिलने का, कुछ बातें जो बस कह देना चाहता हूँ.... किसी न किसी को.. लिखना भी इसलिए ही शुरू किया ताकि अपने अन्दर की बातें बस कहीं बाँट लूं सबसे....

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  2. सलिल जी की बात दुहराने का जी कर रहा है.....
    और क्या कहूँ शेखर!!!

    अनु

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  3. ऐसे कितने ही संस्मरणों से निर्मित होता जीवन..

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  4. पढ़ते हुए डूबता गया जैसे ...
    सुंदर , बहुत बढ़िया !

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  5. यादें जुड़ती रहती हैं हर लम्हे के साथ और समय की चमड़ी मोटी होती जाती है ... पर परतें फिर भी पतली रहती हैं ... हवा का झोंका भी कभी कभी उन यादों की तरफ ले जाता है ...
    खूबसूरत लिखा है ..

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  6. इन कतरों में ही ज़िंदगी होती है... स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...

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  7. deeply expressed....loved to read it...keep it up...

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